۲ آذر ۱۴۰۳ |۲۰ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 22, 2024
अल्लामा मिर्ज़ा अलताफ़ हुसैन कलकत्तवी

हौज़ा / पेशकश: दानिशनामा इस्लाम, इंटरनेशनल नूरमाइक्रो फिल्म सेंटर दिल्ली काविश: मौलाना सैयद गाफ़िर रिज़वी छोलसी और मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फ़ंदेड़वी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, सिराजुल औलमा अल्लामा अलताफ़ हुसैन कलकत्तवी 8 मोहर्रम सन 1304 हिजरी बामुताबिक़ 9 जून सन 1886 ई॰ में सरज़मीने कलकत्ता सूबा बंगाल पर पैदा हुए, मोसूफ़ के वालिद “मेयारूल औलमा मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी” और आपके दादा “क़ाएमतुद्दीन मिर्ज़ा मोहम्मद अली” भी अपने ज़माने के मशहूर व मारूफ़ औलमा व ज़ाकरीन में शुमार किए जाते थे, इसी तरह सिराजुल औलमा के भाई फ़ाज़िले जलील “अल्लामा मिर्ज़ा मोहम्मद नक़ी” भी अपने ज़माने के मशहूर आलिमे दीन थे।

सिराजुल औलमा की विलादत, कलकत्ते के इलाक़े “मटया बुर्ज” में हुई मोसूफ़ की विलादत पर पूरा महल्ला सुरूर की महफ़िल बन गया और आपके वालेदैन की ख़िदमत में तबरीक व तहनीयत के पैगामात का सिलसिला जारी हो गया।

अल्लामा अलताफ़ बचपन से गैर मामूली तबीयत के मालिक थे, ज़कावत, फ़हमों फ़रासत और संजीदगी और मतानत जैसे ओसाफ़े हमीदा मोसोफ़ के वुजूद से नुमाया थे, मोसूफ़ ने इबतेदाई तालीम अपने वालिदे मोहतरम की ख़िदमत में हासिल की फिर वतन के स्कूल “ क़ैसरया” में दाखला ले लिया, सिराजुल औलमा दस साल की उम्र में शफक़ते पिदरी से महरूम हो गये लेकिन तालीम का सिलसिला जारी रहा।

कलकत्ता के जय्यद असातेज़ा से कस्बे फ़ैज़ करने के बाद ज़ोक़े तालीम के तहत अपनी वालेदा के हमराह हिंदुस्तान से इराक़ के लिये आज़िमे सफ़र हुए और करबलाए मोअल्ला पोंहुच कर जवारे हज़रते अब्बासे अलमदार अ: में वहाँ के मशहूर व मारूफ़ औलमा व आफ़ज़ील की ख़िदमत में ज़ानु ए अदब तै किये जिनमें से आयतुल्लाह सय्यद काज़िम बहबहानी, मुफ़्ती ए आज़म मौलाना अहमद अली मुजतहिद और आयतुल्लाह सय्यद अबुल क़ासिम खूई वगैरा के असमाए गिरामी क़ाबिले ज़िक्र हैं।

अल्लामा अलताफ़ एक तूलानी मुद्दत तक सरज़मीने इराक़ की इल्मी फिज़ाओं में सांस लेते रहे, जब इराक़ से हिंदुस्तान की जानिब वापसी का इरादा करने लगे तो कर्बला और नजफ़ के मशहूर माराजे किराम में से 11 मराजे किराम ने इजाज़ात से नवाज़ा: जिनमें से आयतुल्लाह मोहम्मद काज़िम तबातबाई, आयतुल्लाह शेख़ अबदुल्लाह माज़नदारनि, आयतुल्लाह शेख़ फ़तहुल्लाह और आयतुल्लाह शेख़ मोहम्मद हुसैन माज़नदरानि के नाम सरेफेहरिस्त हैं।

नजफ़ से हिंदुस्तान वापसी के बाद सरज़मीने कलकत्ता पर मशगूले तबलीग हुए, वाजिद अली शाह के बड़े साहब ज़ादे “ प्रिंस मिर्ज़ा क़मर क़द्र बहादुर” ने “सिराजुल औलमा” जैसे अज़ीम ख़िताब से मुज़य्यन किया और खलअते फ़ाखेरा से नवाज़ा।

अल्लामा अलताफ़ मुखतलिफ़ सरकारी वा गैर सरकारी ओहदों पर फ़ाइज़ रहे मसलन हुकूमत ने क़ाज़ी बनाया, कलकत्ता में आल इंडिया शिया कांफ्रेस की इनतेज़ामया कमेटी के सिक्रेटरी रहे, इमामबारगाह हुगली के मैनेजर रहे, सिब्तेनाबाद में मोजूद मुबारक शाही इमामबाड़े के मैनेजर रहे, एजुकेशनल कमेटी मदरसे आलिया के मिंबर रहे, मदर्सए नाज़मिया और शिया वक़्फ़ बोर्ड के मिंबर थे और इसी तरह दिगर सरगरमियों का तज़किरा किया जा सकता है।

अवध के शाही ख़ानदान से निहायत गहरे रवाबित थे, मोसूफ़ के दादा और वालिद के हासिल करदा हुकूमती ख़िताब “क़ाएमटुद्दीन’ और “ मेयारूल औलमा” गहरे ताल्लुक़ात का मुँह बोलता शाहकार हैं।

मोसूफ़ अगरचे बंगाल में पैदा हुए थे लेकिन उर्दू ज़बान में बहुत फ़सीह तरीक़े से गुफ़्तगू करते थे मिंबर से ख़िताब आपकी फ़साहत व बलागत का ऐलान करता है, चूंके एक लंबे अरसे तक मुलके इराक़ में क़याम पज़ीर रहे थे लिहाज़ा अरबी ज़बान पर भी मुकम्मल तसल्लुत हासिल कर लिया था, आपकी गुफ़्तगू में आयात व रिवायात का इस्तेमाल मोसूफ़ की सलाहियत और अरबी ज़बान पर तसल्लुत का मुँह बोलता शाहकार है ।

सिराजुल औलमा वाक़ेअन औलामाए मआसिर के चराग साबित हुए, मैदाने तबलीग में अबुज़रे गफ़्फ़ारी और मीसमे तम्मार की सीरत पर अमल पैरा रहे यानी हमेशा हक़ का साथ दिया और मिंबर पर हक़गोई को अपना शिआर बनाया, मोसूफ़ की ये फ़िक्र थी कि हमेशा तमाम हालात में हक़ बयानी से काम लिया जाए।

मोसूफ़ निहायत सादा मिज़ाज और सादगी पसंद इंसान थे, लिबास के ऐतबार से देखा जाए तो मामूली लिबास और गिज़ा के हिसाब से देखा जाए तो उरफ़े आम में मामूल के मुताबिक़ पसंद फ़रमाते थे।

सिराजुल औलमा शायरी पसंद मिज़ाज के हामिल थे यही सबब है कि मोसूफ़ कि ज़िंदगी में शायरी के एक से एक नमूने दस्तयाब हैं, उनहोंने सिनफ़े शायरी में क़सीदा, मंक़बत, नोहा, सोज़, सलाम और नज़्म वगैरा में तबा आज़माई की, नमूने के तौर पर अल्लामा का एक शेर कुछ इस अंदाज़ से है:

रखे जो क़दम दोशे पयमबर पा अली ने

नक़्शे कफ़े पा ताज बना अरशे उला का

मौलाना की बातें मंतिक़ी, फ़लसफ़ी और हकीमाना होती थीं, आपकी ज़बान से कभी ऐसी कोई बात सुनने में नही आई जो बेमाना और बेहूदा हो, अक्सर गुफ़्तगू मंतिक़ि होती थी जो उनकी सलाहियत को आशकार करती थी।

निकाह खानी में आपका खुतबा ए अक़्द ज़बान ज़दे ख़ासो आम था, जब आप खुतबा पढ़ते तो तमाम हाज़रीन पर अजीब विज्द तारी हो जाता था जिसका ऐतराफ़ नासेरूल मिल्लत अल्लामा नासिर हुसैन मूसवी ने भी किया है।

ख़ुदावंदे आलम ने अल्लामा अलताफ़ को चार नेमतों और तीन रहमतों से नवाज़ा, नेमतों के नाम कुछ इस तरह हैं: मिर्ज़ा जवाद हुसैन आखुन्द, मिर्ज़ा मुजतबा हुसैन आलिम और उनके अलावा दो नेमतें बचपन के आलम ही में ख़ुदा को प्यारी हो गईं।

आख़िरकार ये इल्म व अमल का चराग जिसको सिराजुल औलमा कहा जाता था, ज़माने के तूफ़ानों का मुक़ाबला करते करते 13 मोहर्रम सन 1394 हिजरी बामुताबिक़ 24 जनवरी सन 1974 ई॰ में गुल हो गया और नमाज़े जनाज़ा की अदाएगी के बाद मोमेनीन की आहो बुका के साथ मटया बुर्ज की जामे मस्जिद के फ़ोलादी दरवाज़े के नज़दीक सुपुर्दे लहद कर दिया गया।

माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9पेज-111दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।

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